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रस-मीमांसा



में, सच पूछिए तो, तत्वभेद नहीं है; दृष्टिभेद है। ‘प्रेम’ को बीजभाव माननेवालों की दृष्टि उसके मूल वासनात्मक रूप 'राग' को ओर रहती है जो मनुष्य की अंतःप्रकृति में निहित रहकर संपूर्ण सजीव सृष्टि के साथ किसी गूढ़ संबंध की अनुभूति के रूप में समय समय पर जरा करता है। अच्छी तरह देखा जाय तो मनुष्य की प्रकृति के भीतर अव्यक्त रूप में यह रागात्मक संबंध सूत्र चर-अचर सारे प्राणियों के साथ जुड़ा हुआ है। केवल मनुष्य मनुष्य को ही जोड़नेवाला नहीं है। पर इतने असीम और व्यापक रूप में वासनात्मक राग ही रह सकता है, उसका व्यक्त और स्फुरित स्वरुप प्रेम नहीं । प्रेम का आलंबन परिमित, परि‘चित और निर्दिष्ट होगा अपरिमित, अपरिचित और अनिर्दिष्ट नहीं।

राग की वासना दो भावों का प्रवर्तन करती है-प्रेम का और करुणा का। इनमें से प्रेम का व्यापार परिमित, परिचितऔर निर्दिष्ट के प्रति होता है। प्रेम के लिये व्यक्ति की कोई विशेषता अपेक्षित होती है। अपने प्रवर्तक 'राग' के समान उसमें निर्विशेषता नहीं होती। इस प्रकार की निर्विशेषता करुणा ही में होता है।

यदि किसी अत्याचार-पीड़ित अपरिचित को देख कोई व्याकुल होकर सहायता के लिये दौड़ पड़े तो प्रेम को बीजभाव माननेवाला कहेगा 'उसके हृदय में बड़ा प्रेम है,' पर करुणा को बीजभाव माननेवाला कहेगा 'वह बड़ा दयालु है।' इनमें से प्रथम जिसे 'प्रेम 'कहता है वह वास्तव में प्रत्यक्ष प्रेरणा करने वाले करुणा भाव के मूल में रहने वाली 'राग' नाम की वासना है। यह पहले कहा जा चुका है कि 'राग' नाम की वासना का विषय सामान्य होता है और 'प्रेम' नामक भाव का आलंबन - कोई निर्दिष्ट विशेष होता है । आद्र होकर सहायता करनेवाले