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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा विधान है। अतः लोक-मंगल की साधनावस्था या प्रयत्न-पक्ष को लेकर चलनेवाले कवियों या समीक्षकों को ‘करुणा' ही को बीजभाव कहना चाहिए। सिद्धावस्था की प्रशांत भूमि पर चलनेवाले कवियों का ही ‘प्रेमतत्व' को बीजभाव कहना ठीक है। यहाँ पर अब हमें सिद्धावस्था के संबंध में ही विचार करना हैं जो काव्य की प्रशांत, निर्विन्न और अबाध भूमि है। इस भूमि में पालन और रंजन का ही पूर्ण प्रसाद दिखाई पड़ता है । इस भूमि का एकमात्र अधिष्ठाता देवता 'प्रेम' है। उसी के द्वारा पालन और रंजन दोनों संपन्न होते हैं। वात्सल्य भाव द्वारा पालन का और दांपत्य भाव द्वारा रंजन का विधान होता है । इसका तात्पर्य यह नहीं कि इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार के प्रेम द्वारा पालन और रंजन नहीं होता। इन दोनों भावों को रसपद्धति में मुख्य रूप से ग्रहण करने का अभिप्राय केवल इतना हो हैं कि इनमें पालन और रंजन दोनों चरम उत्कर्ष को पहुँचते हैं। आनंद की सिद्धावस्था पर हो दृष्टि रखनेवाले कवियों का ‘प्रेम' यो ही प्रवर्तक या बीजभाव मानना ठीक है किंतु पालन और रंजन दोनों पक्षों के सहित । पर महाराज भोज ने रंजन-पक्ष ही लेकर श्रृंगार ( दांपत्य-भाव ) को ही एकमात्र रस कहा है। इससे यह प्रकट होता है कि काव्य-समीक्षा के क्षेत्र में सिद्धांत या 'वाद' बहुत कुछ रुचि-वैचित्र्य के इशारे पर खड़े हुआ करते हैं; सम्यक् दृष्टि के अनुरोध से कम। काव्य के जिस देश की ओर किसी की रुचि अधिक होती है उसी को वह काव्य का संपूर्ण देश मानना मनाना चाहता है । १ [ शृङ्गार एवैकश्चतुर्वनैकारणं रस इति । -शृंगारप्रकाश, प्रथम प्रय, १३ ।]