पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

काष्य के विभाग आरंभ में ही यह कहा जा चुका है कि आनंद की सिद्धावस्था या उपभोग-पक्ष का प्रदर्शन करनेवाली काव्यभूमि दीप्ति, माधुर्य और कोमलता की भूमि है जिसमें प्रवर्तक या बीजभाव प्रेम है। काव्य की इस भोगभूमि में दुःखात्मक भावों को बेधड़ के चले आने की इजाजत नहीं। आने के पहले उन्हें प्रेम का पूरा शासन स्वीकार करना पड़ता है और बहुत दुबकर आना पड़ता है। पड़ोसियों का नाकों दम करनेवाले, माघ में लु चलानेवाले विरइ-ताप की अपेक्षा बीच बीच में छानेवाली आशा-सुख की शीतलता अधिक हीं मानी गई हैं। यहाँ अमर्ष, ईष्र्या, त्रास इत्यादि स्वतंत्र होकर सिर नहीं उठा सकते । हास्य और आश्चर्य नामक आनंदात्मक भाव अलबत स्वतंत्र बिचर सकते हैं। आश्चर्यं असामान्यत्व पर होता है, अतः उसका आविर्भाव काव्य की कर्मभूमि और भोगभूमिआनंद की साधनावस्था और सिद्धावस्था—दोनों में देखा जाता है। यहाँ हमें केवल भोगभूमि की चर्चा करना है। इस भूमि में आश्चर्य के विषय असामान्य शोभा, सौंदर्य, दीप्ति, आत्मोत्सर्ग, विरह-वेदना इत्यादि पाए जाते हैं। बहुत से लोग इस असामान्य या विरल को ही काव्य की एकमात्र सामग्री मानते हैं जिनमें से कुछ तो उसे प्रस्तुत अर्थ या विषय के स्वरूप में और कुछ उक्ति के स्वरूप में देखा चाहते १ [ सीधैं तननु सिसिर-रितु सहि विरहिनि-तन-तापु । बसिने क ग्रीषम-दिननु प-यौं परोसिनि पापु ॥ २६६ ॥ सुनत पथिक-मुहूँ, माइ-निसि चलति लुबै उहि गाम् ।। बिनु बुझे, बिनु । कहैं, जियति विचारी बाम् ॥ २८ ॥ -बिहारी-रत्नाकर ]