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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा हैं। आनंद की सिद्धावस्था लेकर चलनेवाले काव्यों में अर्थात् काव्य की भोगभूमि में आश्चर्य अधिकतर रंजन का अंग होकर आया करता है। विभाव-पक्ष में असामान्य शोभा, दीप्ति, प्राचुर्य, प्रफुल्लता, कोमलता, सौकुमार्य इत्यादि के द्वारा अद्भुत या अलौकिक रंजन की योजना की जाती है। सारांश यह कि मन और इंद्रियों के सुखद विषय ही काव्य की इस भूमि में लिए जाते हैं। अतः उन विषयों की प्रचुरता और असामान्यता की भावना भी रंजन की अनुभूति में योग देती हैं। असामान्यता या चमत्कार की रुचिवाले कवि बाह्य प्रकृति का चित्रण उसकी असाधारण विभूति को उसकी चमक-दमक, सजावट, वैचित्य, अनोखेपन इत्यादि को लेकर ही करते हैं। इसी रुचि को बहुत से लोग कुला की रुचि मानते हैं। उनके मत से जगन् के साधारण और अरुचिर के बीच से असाधारण और रुचिर को छाँट-छाँट कर सजाना ही और कलाओं के समान काव्यकला का भी काम है। श्रीयुत रवींद्रनाथ ठाकुर अपने साहित्य-धर्म नामक निबंध में कहते हैं कोठार और रसोईघर की गृहस्थ को रोज आवश्यकता पड़ती है, पर संसार के लोगों से वह उन्हें छिपाए रखने को कोशिश करता है। बैठक के बिना भी काम चल सकता है, फिर भी उसी घर में सारा साज सामान रहता है। पूरी सजावट रहती है। घर का मालिक उसी घर में तस्वीरें टाँगकर, कार्पेट बिछाकर उसपर सदा के लिये अपनी छाप लगा देना चाहता है। उस घर को उसने खास तौर से छाँटा है। उसी के द्वारा वह सबसे परिचित होना चाहता है-अपनी व्यक्तिगत महिमा से।इसीलिये उसकी बैठक अलंकृत रहती है।