पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/९४

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काव्य के विभाग इस कथन का अभिप्राय यह है कि इसी सजावट की रुचि का ही एक रूप काव्य की रुचि है; इसी रुचि की प्रेरणा से कवि की कल्पना काम करती हैं और इसी रुचि की तुष्टि के लिये कविता पढ़ी या सुनी जाती है। पर जो कुछ अव तक कहा जा चुका है उसके अनुसार ऊपर उद्धृत कथन काव्य के केवल एक पक्ष विशेष का निरूपण करता है। यह अवश्य दें कि इस पक्ष पर खड़े होनेवाले पहले भी रहे हैं और अब भी बहुत से लोग हैं। श्रृंगार को ही एकमात्र रस माननेवाले महाराज भोज का जिक्र हो चुका है। भोज ऐसे राजाओं के दरबार में रत्नों की जगमगाट्ट और यश की चाँदनी फैलानेवाली वाणी का वहुत ही अनुरंजनकारी संग्रह हमारे साहित्य में है। फारस की शायरी भी अधिकतर चुनी हुई सजावट ही लेकर चली है। फ्रांस और इटली के प्रभाव से योरप में भी ‘सजावट और अनूठेपन की वासना को ही कला की मूल वासना समझनेवाले बहुत से हैं। कहना न होगा कि सजावट और अनूठेपन का यह सिद्धांत असामान्यतावाद के ही अंतर्गत है। काव्य का यह असामान्यतावाद धीरे धीरे उस लोकोत्तरवाद तक पहुँचा जिसका प्रतिपादन काव्य को आध्यात्मिक क्षेत्र में ले जाने के लिये किया गया। श्रीयुत रवींद्र कहते हैं

  • जिसे सीमा में बाँध सकें उसका नाम भी रखा जा सकता है; किन्तु जो सीमा के बाहर है, जो पकड़ने या छूने में नहीं आ सकता, उसे बुद्धि द्वारा नहीं पाते, बोध के अंदर-किसी भीतरी तह में-- पाते हैं। उपनिषत् ने ब्रह्म के संबंध में कहा है-न. तो उसे मन में पाते हैं, न वचन में। उसे जब पाते हैं तब आनंद के अनुभव में । हमारी इस अनुभव की भूख आत्मा की भूख है। वह इसी अनुभव से अपने को पहचानती है।