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रस-मीमांसा



सामान्य से सामान्य प्राकृतिक वस्तुओं में, नगण्य से नगण्य के जीवन-व्यापार में इस माधुर्य का अनुभव होता है। अतीत की स्मृति में, कौमार अवस्था के परिचित पुराने पेड़ों और उजाड़ टीलों में, किसानों के झोपड़ों में, काई और कीचड़-भरे तालों में, चरकर लौटती हुई गायों के धूल उड़ाते हुए झुंड में, गड़ेरियों और ग्वालों की कमलीं में, ऊसर की पगडंडियों में मन को लीन करनेवाला जो गुण है, वह माधुर्य हैं। प्रत्येक देश के सच्चे कवियों ने सीधे सादे और सामान्य में भी बराबर इस माधुर्य का अनुभव किया है। इस माधुर्य की अनुभूति के स्वरूप को दीप्ति और सज्जा की अनुभूति के स्वरूप से सर्वथा भिन्न समझना चाहिए। जैसे घास के चौरस मैदान को मखमलीं कालीन या पन्ने का फर्श कहने से माधुर्य की अनुभूति के ठीक स्वरूप की व्यंजना नहीं होगी। ऐसे कथन में केवल दीप्ति और सजावट की भावना पाई जायगी।

रूप-सौंदर्य के अंतर्गत प्रायः दीप्ति और माधुर्य दोनों मिले रहते हैं। दीप्ति चकित और स्तंभित करती है। प्रेम-काव्यों में कहीं कहीं नायिका के रूप को देखते ही नायक जो मूच्छित होकर गिर जाया करते हैं उसे दीप्ति का प्रभाव समझना चाहिए। जायसी की पद्मावत में शिव - मंदिर में प्रवेश करती हुई पद्मिनी को देखते ही राजा रत्नसेन तो मूच्छित हो ही गए; शिव और देवता लोग भी स्तब्ध हो गए। रूप में लोभ उत्पन्न करनेवाली या लुभानेवाली वस्तु, मन को पास खींचनेवाली शक्ति माधुर्य है। दीप्ति मात्र में चिपक नहीं होती। लोग न जाने कितने दमकते हुए रूप देखते हैं, चकित होते हैं पर सब जगह उनका

-१ [ देखिए पद्मावत, बसंत खंड । ]