पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/११८

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खड़ी बोली और उसका पद्य ] ११६ [ 'हरिऔध' रवींद्रनाथ ठाकुर की इस प्रकार की रचनाएँ सर्वोच्च हैं । इस महापुरुष ने इस विषय में लिखकर जो भावना दिखलायी है वह अभूतपूर्व और अद्भुत है । रहस्यवाद' पर लेखनी चलाना सुगम नहीं, इसके लिये बहुत बड़े अनुभव और सर्वव्यापक दृष्टि की आवश्यकता है । मैं कबीर साहव की कतिपय साखियों को यहाँ उठाकर इस विषय पर कुछ और प्रकाश डालना. चाहता हूँ । अन्य ग्रंथों के उदाहरण के लिए स्थान का संकोच है:- सरपहिं दूध पियाइये सोई बिस है जाय । ऐसा कोई ना मिला आपे ही बिख खाय । घर जारे घर ऊबरै घर राखे घर जाय। एक अचंभा देखिया मुआ काल को खाय । पाया कहें ते बावरे खोया कहें ते कूर । पाया-खोया कुछ नहीं, ज्यों का त्यों भरपूर ।। आसा जीवै जग मरै लोग मरै मर जाहि । धन संचै सो भी मरै, उबरै सो धन खाहि ।। भरो होय सो रीतई रीतो होय भराय । रीतो भरो न पाइये अनुभव सोइ कहाय ।। रहस्यवाद के बड़े अच्छे ये दोहे हैं। इनमें कतिपय रहस्यों का उद्घाटन है, इसमें अनुभव और ज्ञान की ज्योति निकल रही है और कतिपय सिद्धांतों पर उज्ज्वल प्रकाश पड़ रहा है। परन्तु, कबीर साहब के कुछ ऐसे पद्य भी हैं, जिनका कोई अर्थ नहीं है। मनगढन्त की बात दूसरी है, पर वास्तव बात यह है कि भाषा और भाव उनका तत्व प्रकट करने में असमर्थ हैं, जैसे- घर-घर मुसरी मंगल गावै, कछुआ संख बजावै । पहिर चोलना गदहा नाचै भैंसा भगत करावै ।।