पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१२७

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छायावाद ] १२८ ['हरिऔध' तन्त्री बजती है, बिना स्वर का पालाप होता है, बिना बादल रस बर- सता है। और बिना रूप-रंग के ऐसे मनोहर अनन्त प्रसून विकसित होते हैं कि जिनके सौरभ से संसार सौरभित रहता है। वहिर्जगत और अन्तर्जगत का यह रहस्य है । इनका सूत्र जिनके हाथ में है, उसकी बात ही क्या ! उसके विषय में मुँह नहीं खोला जा सकता । जिसने जीभ हिलायी उसी को मुँह की खानी पड़ी। बहुतों ने सर मारा पर सब सर पकड़ के ही रह गये। . सब सही, पर रहस्यभेद का भी कुछ अानन्द है। यदि समुद्र की अगाधता देखकर लोग किनारा कर लेते तो चमकते मुक्ता दाम हाथ न पाते । पहाड़ों की दुर्गमता विचार कर हाथ पाँव डाल देते तो रत्न- राशि से अलंकृत न हो सकते । लोकललाम लोकातीत हो, उनकी लीलाएँ लोकोत्तर हों, उनको लोचन न अवलोक सके, गिरा न गा सके। उनके प्रवाह में पड़ कर विचार धारा डूब जाय. मति-तरी भन हो और प्रतिभा विलीन । किन्तु उनके अवलम्बन भी तो वे ही हैं। उनका मनन, चिन्तन, अवलोकन ही तो उनके जीवन का आनन्द है । आकाश असीम हो, अनन्त हो तो, खगकुल को इन प्रपंचों से क्या काम १ वह तो पर खोलेगा और जी भर उसमें उड़ेगा। उसके लिए यह सुख अल्प नहीं । पारावार अपार हो, लाखों मीलो में फैला हो, अतलस्पर्शी हो, मीन को इससे प्रयोजन नहीं। वह जितनी दूर में केलि करता फिरता है, उछलता रहता है उतना ही उसका सर्वस्व है और वही उसका जीवन और अवलम्बन है। मनुष्य भी अपने भावानुकूल लोक ललाम की कल्पना करता है, संसार के विकास में उसकी विभूतियों में उस लीलामय की लीलाएँ देखता, मुग्ध होता और अलौकिक आनन्दानुभव करता है। क्या इसमें उसके जीवन की सार्थकता नहीं है ? मनुष्यों में जो विशेष भावुक होते हैं, वे अपनी भावुकता को जिह्वा पर भी लाते हैं, उसको सुमनोपम कान्त पदावली द्वारा सनाते हैं, तरह-तरह के