छायावाद ] १३८ [ 'हरिऔध' में अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल होंगे । अभ्यास को आदिम व्यवस्था ऐसी ही होती है किन्तु असफलता ही सफलता की कुञ्जी है। एक बात यह अवश्य देखी जाती है कि छायावाद के अधिकांश कवियों की दृष्टि न तो अपने देश की अोर है, न अपनी जाति और समाज की ओर । हिन्दू जाति आज दिन किस चहले में फंसी है. वे अाँख से उसको देख रहे हैं पर उनकी सहानुभूति उसके साथ नहीं है । इसको दुर्भाग्य छोड़ और क्या कहें । जिसका प्रेम विश्व- जनीन है वह अपने देश के, जाति के, परिवार के, कुटुम्ब के दुख से दुखी नहीं, इसको विधि-विडम्बना छोड़ और क्या कहें १ शृंगारिक कवियों की कुत्सा करने में जिनकी लेखनी सहस्रमुखी बन जाती है, उनमें इतनी आत्मविस्मृति क्यों है ? इसको वे ही सोचें । यदि शृंगार-रस में निमग्न होकर उन्होंने देश को रसातल पहुँचाया तो विश्वजनीन प्रेम का प्रेमिक उनको संजीवनी सुधा पिलाकर स्वर्गीय सुख का अधिकारी क्यों नहीं बनाता १ जिस देश, जाति और धर्म की ओर उनकी इतनी उपेक्षा है, उनको स्मरण रखना चाहिये कि वह देश जाति और धर्म ही इस विश्वजननीन महामंत्र का अधिष्ठाता, स्रष्टा और ऋषि है। जो कवीन्द्र रवीन्द्र उसके प्राचार्य और पथप्रदर्शक हैं, उन्हीं का पदानुसरण क्यों नहीं किया जाता ? कम- से-कम यदि उन्हीं का मार्ग ग्रहण किया जाय तो भी निराशा में अाशा की झलक दृष्टिगत हो सकती है। यदि स्वदेश-प्रेम संकीर्णता है तो विश्व- जनीन-प्रेम की दृष्टि से ही अपने देश को क्यों नहीं देखा जाता । विश्व के अन्तर्गत वह भी तो है । यदि संसार भर के मनुष्य प्रेम-पात्र हैं तो भरत- कुमार स्नेह भाजन क्यों नहीं ? क्या उनकी गणना विश्व के प्राणियों में नहीं है ? यदि सत्य का प्रकार किया जा रहा है, प्रेम की दीक्षा दी जा रही है, विश्व-बन्धुत्व का राग अलापा जा रहा है, तो क्या भारतीय जन उनके अधिकारी नहीं। जो अपना है, जिस पर दावा होता है उसी को उपा- लम्भ दिया जाता है। जिससे अाशा होती है, उसी का मुँह ताका जाता है । मैंने जो कुछ यहाँ लिखा है वह ममतावश होकर, मत्सर से नहीं ।
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