पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१४६

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१४७ कबीर साहब ] [ 'हरिऔध' है और कतिपय शब्द मात्र अन्य भाषा के आ गये हैं उन्हें मैं उन्हीं की रचनो मानता हूं और समझता हूँ कि वे किसी अल्पक्ष लेखक की अन- धिकार चेटा से सुरक्षित हैं । उनके इस प्रकार के कुछ पद्य भी देखिये:- १-दाता तरवर दया फल, उपकारी जीवन्त । पंछी चले दिसावरां बिरखा सुफल फलन्त । २-कबीर संगत साधु की कदे न निरफल होय । चंदन होसी बावना नीम न कहसी कोय । ३-कायथ कागद काढ़िया लेखै वार न पार। जब लग साँस सरीर में तब लग राम सँभार । ४-हरजी यहै बिचारिया, साखी कहै कबीर । भवसागर मैं जीव हैं, जे कोइ पकड़े तीर । ५-ऐसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ । अपना तन सीतल करै, औरन को सुख्न होइ। इन पद्यों में कुछ शब्द पंजाबी या राजस्थानी हैं । इस प्रकार का प्रयोग कबीर साहब की रचनाओं में प्राय: मिलता है। ऐसे आकस्मिक प्रयोग उनकी मुख्य भाषा को संदिग्ध नहीं बनाते, क्योंकि जिस पद्य में किसी भाषा का मुख्य रूप सुरक्षित रहता है उसं पद्य में आये हुए अन्य भाषा के दो एक शब्द एक प्रकार से उसी भाषा के अंग बन जाते हैं । अवधी अथवा ब्रज- भाषा में 'वाणी' को 'बानी' ही लिखा जाता है, क्योंकि इन दोनों भाषाओं में 'ण' का अभाव है। पंजाब प्रान्त के लेखक प्रायः 'न'के स्थान पर 'ण' प्रयोग कर देते हैं, क्योंकि उस प्रान्त में प्रायः नकार णकार हो जाता है। वे 'बानी' को 'बाणी 'पासन' को 'पासण' 'पवन' को 'पवण' इत्यादि हीं बोलते और लिखते हैं । ऐसी अवस्था में यदि कबीर साहब के