पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१४८

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कबीर साहब ] १४६ [ 'हरिऔध' वह भी हिन्दू मुसलमानों के एकीकरण में लग्न थे। उस समय भारतवर्ष में इन पीरों की बड़ी प्रतिष्ठा थी और वे बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखे जाते थे । गुरु नानकदेव ने भी इन पीरों का नाम अपने इस वाक्य में, 'सुणिये सिद्ध-पीर सुरिनाथ', आदर से लिया है । जो पद उन्होंने सिद्ध, नाथ और सूरि को दिया है वही पीर को भी। पहले आप पढ़ आये हैं कि उस समय सिद्धों का कितना महत्व और प्रभाव था। नाथों का महत्व भी गुरु गोरखनाथजी की चर्चा में प्रकट हो चुका है। सूरि जैनियों के प्राचार्य कहलाते है और उस समय दक्षिण में उनकी महत्ता भी कम नहीं थी। इन लोगों के साथ गुरु नानक देव ने जो पीर का नाम लिया है. इसके द्वारा उस समय इनकी कितनी महत्ता थी यह बात भली भाँति प्रकट होती है। इस पीर नाम का सामना करने ही के लिए हिन्दू प्राचार्य उस समय गुरु नाम धारण करने लग गये थे। इसका सूत्रपात गुरु गोरखनाथजी ने किया था। गुरु नानकदेव के इस वाक्य में 'गुरु ईसर गुरु गोरख बरम्हा गुरु पारवती माई' इसका संकेत है। गुरु नानक के सम्प्रदाय के प्राचार्यों के नाम के साथ जो गुरु शब्द का प्रयोग होता है उसका उद्देश्य भी यही है। वास्तव में उस समय के हिन्द प्राचार्यों को हिन्दू धर्म की रक्षा करने के लिए अनेक मार्ग ग्रहण करने पड़े थे। क्योंकि बिना इसके न तो हिन्दू धर्म सुरक्षित रह सकता था, न पीरों के सम्मुख उनको सफलता प्राप्त हो सकती थी क्योंकि वे राजधर्म के प्रचारक थे। कबीर साहब की प्रतिभा विलक्षण थी और बुद्धि बड़ी ही प्रखर । उन्होंने इस बात को समझ लिया था। अतएव उन दोनों से भिन्न तीसरा मार्ग ग्रहण किया था। परन्तु कार्य उन्होंने वही किया जो उस समय मुसलमान पीर कर रहे थे अर्थात् हिन्दुओं को किसी प्रकार हिन्दू धर्म से अलग करके अपने नव प्रवर्तित धर्म में आकर्षित कर लेना उनका उद्देश्य था। इस उद्देश्य-सिद्धि के लिए उन्होंने अपने को ईश्वर का दूत बतलाया और अपने ही मुख से अपने