पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१५५

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कबीर साहब ] १५६ [ 'हरिऔध' भव विदार मूसा खनै खाता। चंचल मूसा करि नाश जाता। काला मूसा उरध न वन । गगने दीठि करै मन बिनु ध्यान । तबसो मूसा चंचल वंचल । सतगुरु बाधे करु सो निहचल । ___जबहिं मूसा आचार टूटइ । भुसुक भनत तब बन्धन पू पाटइ। २-मूल- जयि तुझे भुसुक अहेइ जाइबें मारि हसि पंच जना । नलिनी बन पइसन्ते होहिसि एकुमणा। जीवन्ते भैला बिहणि मयेलण अणि । हण बिनु मासे भुसुक पद्मं बन पइ सहिणी । माया जाल पसयो अरे बाधेलि माया हरिणी। सद गुरु बोधे बूझिरे काढूं कहिनि । भूसुक छाया - जा तोहिं भुसुक जाना मारहु पंच जना। नलिनी बन पइसंते होहिसि एक मना जीवत भइल बिहान मरि गइल रजनी । हाड़ बिनु मासै भुसुक पदम बन पश्यसि । माया-जाल पसारे ऊरे बाँधेलि माया हरिणी। सद्गुरु बोधे बूझी कासों कथनी । -भुसुक