पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कविवर सूरदास ] १७२ [ 'हरिऔध' चारु कपोल लोन लोचन छवि गोरोचन को तिलक दिये । लर लटकत मनो मत्त मधुपगन माधुरि मधुर पिये। कठुला कंठ वन केहरि नख राजत हैं सखि रुचिर हिये। धन्य सूर एको पल यह सुख कहा भये सत कल्प जिये। मैं ऊपर लिख आया हूँ कि सूरदासजी का शृंगार-रस वर्णन बड़ा विशद है और विप्रलम्भ शृङ्गार लिखने में तो उन्होंने वह निपुणता दिखलायी जैसी आज तक दृष्टिगत नहीं हुई। कुछ पद्य इस प्रकार के भी देखिये- ८-सुनि राधे यह कहा विचारै। वे तेरे रंग तू उनके रंग अपनो मुख काहे न निहारै। जो देखे ते छाँह, आपनी स्याम हृदय तव छाया। ऐसी दसा नंदनंदन की तुम दोउ निरमल काया । नीलाम्बर स्यामल तन की छबि तुव छबि पीत सुबास । घर भीतर दामिनी प्रकासत दामिनि घन चहुँ पास। सुनरी सखी विलच्छ कहाँ तो सौं चाहति हरिको रूप । सूर सुनौ तुम दोउ सम जोरी एक एक रूप अनूप । ९-काहे को रोकत मारग सूघो। सुनहु मधुप निरगुन कंटक सों राजपंथ क्यों रूँघो। याको कहा परेखो कीजै जानत छाछ न धो। सूर मूर अक र ले गये ब्याज निबेरत ऊधो। १०-बिलग मत मानहु ऊधो प्यारे। यह मथुरा काजर की ओवरी जे आवहिं ते कारे । तुम कारे सुफलक सुत कारे कारे स्याम हमारे । मानो एक माँठ मैं बोरे ल जमुना जो पखारे । ता गुन स्याम भई कालिंदी सूर स्याम गुन न्यारे ।