पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१७५

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कविवर सूरदास ] १७६ [ 'हरिऔध' है। 'घना', 'मगना', इत्यादि में ह्रस्व को दीर्घ कर दिया गया है, अर्थात् 'घन' और 'मगन', के 'न' को 'ना' बनाया गया है। यह बात भी देखी जाती है कि वे कुछ कारक चिन्हों और प्रत्ययों आदि को लिखते तो शुद्ध रूप में हैं, परन्तु पढ़ने में उनका उच्चारण हस्व होता है। क्योंकि यदि ऐसा न किया जाय तो छन्दोभंग होगा। निम्नलिखित पंक्तियों में इस प्रकार का प्रयोग पाया जाता है। ऊपर दिये हुए उद्धरणों में कारक चिह्नों और शब्दगत वणों को देखिये:- 'काहे को रोकत मारग सूधो' २--'मेरो लाल को आऊ निंदरिया काहे न आनि सुश्रावै ३-'सखी री स्याम सबै एक सार ४-'सूर सुनो तुम दोऊ सम जोरी एक एक रूप अनूप ५-सूर के स्याम करी पुनि ऐसी मृतक हुते पुनि मारे। ६-'मानो एक गांठ में बोरे ले जमुना जो पखारे। ७-'समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो। 'जब दोनों मिलि एक वरन भये सुरसरि नाम परो ___ यह प्रणाली कहाँ तक युक्ति-संगत है, इसमें मतभिन्नता है। किन्तु जिस मात्रा में विशेष स्थलों पर सूरदासजी ने ऐसा किया है, मेरा विचार है कि वह ग्राह्य है क्योंकि इससे एक प्रकार से विशेष शब्द- विकृति की रक्षा होती है। दूसरी बात यह है कि यदि कुछ शब्दों को ह्रस्व कर दिया जाय तो उसका अर्थ ही दूसरा हो जाता है। जैसे 'भये' को 'भय' लिख कर यदि छन्दोभंग की रक्षा की जाय तो अर्थापत्ति सामने आती है। प्राकृत भाषा में भी यह प्रणाली गृहीत देखी जाती है। उर्दू कवियों की पंक्ति-पंक्ति में इस प्रकार का प्रयोग मिलता है। हिन्दी में विशेष अवस्था और अल्प मात्रा ही में कहीं ऐसा किया जाता है। यह पिंगल नियमावली के अन्तर्गत भी है। जैसे विशेष स्थानों में