पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१८२

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कविवर सूरदास ] १८३ . [ 'हरिऔध' मानसिक भाव किस प्रकार ज्ञान-पथ में विचरण करते हैं और फिर कैसे विश्व-सत्ता के सामने वे विनत हो जाते हैं इस बात को उनके विनय के पद्यों की पंक्ति-पंक्ति बड़ी ही सरसता से अभिव्यञ्जित करती पायी जाती है। उद्धृत पद्यों में से संख्या एक से चार तक के पद्य देखिये। उनमें एक ओर यदि मानवों के स्वाभाविक अज्ञान, दुर्बलताओं और भ्रम-प्रमाद' पर हृदय मर्माहत होता देखा जाता है तो दूसरी ओर मानसिक करुणा अपने हाथों में विनय की पुष्पांजलि लिये किसी करुणासागर की ओर अग्रसर होती दिखलायी पड़ती है। लालभाव का वर्णन जिन पदों में है, देखिये संख्या ५ से ७ तक, उनमें बालकों के भोले-भाले भाव जिस प्रकार अंकित हैं, वे बड़े ही मर्मस्पर्शी हैं । उनके देखने से ज्ञात होता है कि कवि किस प्रकार हृदय की सरल से सरल वृत्तियों और मन के सुकुमार भावों के यथातथ्य चित्रण की क्षमता रखता है। बाल-लीला के पदों को पढ़ते समय ऐसा ज्ञात होने लगता है कि जिस समय की लीला का वर्णन है उस समय कवि खड़ा होकर वहां के क्रिया-कलाप को देख रहा था। इन वर्णनों के पढ़ते ही आँखों के सामने वह समाँ पा जाता है जो उस समय वहाँ मौजूद रहकर कोई देखनेवाली आँखें ही देख सकतीं। इस प्रकार का चित्रण सूरदास के ऐसे सहृदय कवि ही कर सकते हैं, अन्यों के लिए यह बात सुगम नहीं। उनका शृङ्गार-वर्णन पराकाष्ठा को पहुँच गया है। उतना सरस और स्वाभाविक वर्णन हिन्दी-साहित्य में नहीं मिलता। यह मैं कहूँगा कि शृङ्गार-रस के कुछ वर्णन ऐसे हैं कि यदि वे उस रूप में न लिये जाते तो अच्छा होता, किन्तु कला की दृष्टि से वे बहुमूल्य हैं । उनका विप्रलम्भ शृङ्गार ऐसा है जिसके पद पद से रस निचुड़ता है । संसार के साहित्य-क्षेत्र में प्रेम-धाराएँ विविध रूप से बहीं, कहीं वे बड़ी ही वेदनामयी हैं, कहीं उन्मादमयी और रोमांचकारी, और कहीं उनमें आत्मविस्मृति और तन्मयता की ऐसी मूर्ति दिखलायी पड़ती है जो