पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२०२

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गोस्वामी तुलसीदास ] २०३ [ 'हरिऔध' सिव की दई संपदा देखत श्री सारदा सिहानी। जिनके भाल लिखी लिपि मेरी सुख की नहीं निसानी। तिन रंकन को नाक सँवारत हौं आयो नकवानी। दुख्न दीनता दुखी इनके दुख जाचकता अकुलानी। यह अधिकार सौं पिये औरहिं भीख भली मैं जानी । प्रेम प्रसंसा विनय व्यंग- जुत सुनि विधि को बर बानी तुलसी मुदित महेस मनहिं मन जगत मातु मुसकानी। ८-अब लौं नसानी अब ना नसैहौं। रामकृपा भव निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौँ। पायो नाम चारु चिंतामनि उर कर ते न खसैहौं । स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनहिँ कसैहौं।