पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२१९

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कविवर केशवदास ] २२० - [ 'हरिऔध' केशवदासजी की भाषा के विषय में विचार करने के पहले मैं यह प्रकट कर देना चाहता हूँ कि इनके ग्रन्थों, में जो मुद्रित होकर प्राप्त होते हैं, यह देखा जाता है कि एकही शब्द के भिन्न-भिन्न रूप हैं। इससे किसी सिद्धांत पर पहुँचना बड़ा दुस्तर है। फिर भी सब बातों पर विचार करके और व्यापक प्रयोग पर दृष्टि रखकर मैं जिस सिद्धान्त पर पहुँचा हूँ उसको आप लोगों के सामने प्रकट करता हूँ। केशवदासजी के ग्रन्थों की मुख्य भाषा ब्रजभाषा है। परन्तु बुन्देलखण्डी शब्दों का प्रयोग भी उनमें पाया जाता है। यह स्वाभाविकता है। जिस प्रान्त्र में वे रहते थे उस प्रान्त के कुछ शब्दों का उनकी रचना में स्थान पाना आश्चर्यजनक नहीं। इस दोष से कोई कवि या महाकवि मुक्त नहीं। बुन्देलखण्डी भाषा लगभग ब्रजभाषा ही है और उसकी गणना भी पश्चिमी हिन्दी में ही है । हाँ, थोड़े से शब्दों या प्रयोगों में भेद अवश्य है। परन्तु इससे ब्रजभाषा की प्रधानता में कोई अन्तर नहीं आता। केशवदासजी ने यथास्थान बुन्देलखण्डी शब्दों का जो अपने ग्रन्थ में प्रयोग किया है मेरा विचार है कि इसी दृष्टि से। ब्रजभाषा के जो नियम हैं वे सब उनकी रचना में पाये जाते हैं। इसलिए उन नियमों पर उनकी रचना को कसना व्यर्थ विस्तार होगा। मैं उन्हीं बातों का उल्लेख करूँगा जो ब्रजभाषा से कुछ भिन्नता रखती हैं। ___ मैं पहले कह चुका हूँ कि केशवदासजी संकृत के पंडित थे। ऐसी अवस्था में उनका संस्कृत के तत्सम शब्दों को शुद्ध रूप में लिखने के लिए सचेष्ट रहना स्वाभाविक है। वे अपनी रचनाओं में यथाशक्ति संस्कृत के तत्सम शब्दों को शुद्ध रूप में लिखना ही पसन्द करते हैं, यदि कोई कारण-विशेष उनके सामने उपस्थित न हो बावे। एक बात और है। वह यह कि बुन्देलखण्ड में णकार और शकार का प्रयोग प्रायः बोल-चाल में अपने शुद्ध रूप में किया जाता है। इसलिए भी उन्होंने संस्कृत के उन तत्सम शब्दों को जिनमें णकार और शकार आते