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कवि-वरेण्य! अनूपम धन्य है।

सुरुचिरा रचना यह आपकी॥
मधुरिमा मृदु मंजु मनोज्ञता।
सुप्रतिभा छवि पुंज प्रभामयी॥
यह अवश्य कवे! तब होयगी।
कृति महा कवि-कीर्ति प्रदायिनी॥

---पं० श्रीधर पाठक

"हरिश्चन्द्र के बाद हिन्दी के क्षेत्र में जिन दो पुरुषों ने पदार्पण किया है उनके शुभ नाम हैं पं० अयोध्यासिंह उपाध्याय और बाबू मैथिलीशरण जी गुप्त। इन दोनों का कविता-काल प्रायः एक ही है; दोनों ने हिन्दी की खड़ी बोली की कविता को अपनाया और सफलतापूर्वक काव्य-ग्रन्थों की रचना की। दोनों ही देशभक्त तथा जातिभक्त आत्माएँ हैं। पर इतनी समानता होते हुए भी कविता की दृष्टि से उपाध्याय जी का स्थान गुप्त जी से ऊँचा है, ऐसा मेरा विचार है। इतना ही नहीं, मैं तो उपाध्याय जी को वर्तमान युग का सर्वश्रेष्ठ कवि मानता हूँ, और उनका स्थान कवित्व की दृष्टि से भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से भी उत्तम समझता हूँ। मैं उनकी तुलना बंगला के महाकवि मधुसूदन से करता हूँ, और सब मिलाकर 'मेघनाद-वध' काव्य से 'प्रिय-प्रवास' को कम नहीं मानता। बँगलावाले अपने मन में जो चाहें समझें, पर तुलनात्मक समालोचना की कसौटी में कस कर परखने से पता चलता है कि हमारी वर्तमान शैली की हिन्दी में भी ऐसे काव्य-ग्रन्थ हैं, जिनके मुकाबिले बंगला भाषा बड़ी मुश्किल से ठहर सकती है और कहीं-कहीं तो उसको मुँह की खाने तक की नौबत आ जाती है। ऐसे काव्यग्रन्थों में 'प्रिय-प्रवास' का उच्च स्थान है, यह प्रत्येक हिन्दीप्रेमी जानता है।