पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२२३

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कविवर केशवदास ] २२४ [ 'हरिऔधर प्रयोग करते देखा जाता है । किन्तु फिर भी इस प्रकार के प्रयोग मर्या- दित हैं और संकीर्ण स्थलों पर ही किये गये हैं। इसलिए मैं उनको कटाक्ष योग्य नहीं मानता । उनकी रचना में एक विशेषता यह है कि वे तत्सम शब्दों को यदि किसी स्थान पर युक्त-विकर्ष के साथ लिखते हैं तो भी उसमें थोड़ा ही परिवर्तन करते हैं। जब उनको क्रिया का स्वरूप देते हैं तो भी यही प्रणाली ग्रहण करते हैं । देखियेः- १-इनहीं के तप तेज तेज पढ़िहै तन तूरण । इनहीं के तप तेज होहिंगे मंगल पूरण । २-रामचन्द्र सीता सहित शोभत हैं तेहि ठौर । ३-मनो शची विधि रची विविध विधि वर्णत पंडित । 'तूरण', 'पूरण', 'शोभत'; 'बर्णत' इत्यादि शब्द इसके प्रमाण हैं । ब्रजभाषा के नियमानुसार इनको 'तूरन', 'पूरन', 'सोभत', 'बरनत' लिखना चाहिये था। किन्तु उन्होंने इनको इस रूप में नहीं लिखा । इसका कारण भी उनका संस्कृत तत्सम शब्दानुराग है। बुन्देलखण्डी भाषा में 'हुतो' एकवचन 'पुल्लिग में और 'हते' बहुवचन पुल्लिंग में बोला जाता है। इनका स्त्रीलिङ्ग रूप 'हतो' और 'हती' होगा । ब्रजभाषा में ये दोनों तो लिखे जाते ही हैं, 'हुतो' और 'हुती' में भी लिखा जाता है। वे भी दोनों रूपों का व्यवहार करते हैं, जैसे, 'सुता बिरोचन की हुती दीरघजिह्वा नाम ।' उनको अवधी के 'इहाँ', 'उहाँ', 'दिखाउ', 'रिझाउ'. 'दीन', 'कीन' इत्यादि का प्रयोग करते भी देखा जाता है । वे 'होइ' भी लिखते हैं, 'होय' भी, देखिये:- १-एक इहाँऊ उहाँ अतिदीन सुदेत दुहूँ दिसि के जन गारी २-प्रभाउ आपनो दिखाउ छोडि वाजि भाइ कै।