पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२४५

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कविवर देव ] २४६ [ 'हरिः (२) देवजू जो चित चाहिये नाह तो नेह निबाहिये देह हरयो परै। जौ समझाइ सुझाइये राह अमारग मैं पग धोखे धखो परै। नीके मैं फीके है आँसू भरो कत ऊँचे उसास गरो क्यों, भयो परै। रावरो रूप पियो अँखियान भयो सो ___ भरथो उमड्यो सो ढरथो परै। (३) भेष भये बिष भाव ते भूषन भूख न भोजन की कछु ईछी। स्त्रीचु की साध न सोंधे की साध न दूध सुधा दधि माखन छीछी। चंदन तो चितयो नहिं जात चुभी चित माहिं चितौनि तिरीछी। फूल ज्यों सूल सिला सम सेज बिछौनन बीच बिछी जनु बीछी। (४) प्रेम पयोधि परे गहिरे अभिमान । को फेन रह्यो गहि रे मन । कोप तरंगिनि सो पहिरे पछिताय पुकारत क्यों बहिरे मन ।