पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२५६

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कविवर भारतेन्दु ] २५७ [ 'हरिऔध' जगजिन तृण सम करि तज्यो अपने प्रेम प्रभाव । करि गुलाब सों आचमन लीजत वाको जाँव ॥ परम प्रम निधि रसिकवर अति उदार गुनखान । जग जन रंजन आशु कवि को हरिचंद समान ॥ कभी सगर्व होकर यह कहते- चंद टरै सूरज टरै टरै जगत के नेम। पै दृढ़ श्री हरिचंद को टरै न अविचल प्रम॥ जब वे अपनी सांसारिकता को देखते और कभी अात्म-ग्लानि उत्पन्न होती तो यह कहने लगते- जगत-जाल में नित बँध्यो पयो नारि के फंद। मिथ्या अभिमानी पतित झूठो कवि हरिचंद ॥ उनकी जितनी रचनाएँ हैं, इसी प्रकार विचित्रताओं से भरी हैं । कुछ उनमें से आप लोगों के सामने उपस्थित की जाती हैं- १-इन दुखियान को न सुन सपने हूँ मिल्यो __यों ही सदा व्याकुल विकल अकुलायेंगी। प्यारे हरिचंद जू की बीती जानि औधि जोपै जैहैं प्रान तऊ ए तो संग ना समायेंगी। देख्यो एक बार हूँ न नैन भरि तोहिं यातें ___जौन जौन लोक जैहैं तहाँ पछतायँगी। बिना प्रान - प्यारे भये दरस तिहारे हाय मुएहू पै आँखें ये खुली रह जायेंगी।