पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२६०

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कविवर भारतेन्दु] २६१ [ 'हरिऔध' डंका कूच का बज रहा मुसाफिर जागो रे भाई। देखो लाद चले पंथी सब तुम क्यों रहे भुलाई। जब चलना ही निश्चय है तौ लै किन माल लदाई । हरीचंद हरिपद बिनु नहिं तौ रहि जैहौ मुँह पाई। किन्तु उनकी इस प्रकार की रचना बहुत थोड़ी है। क्योंकि उनका विश्वास था कि खड़ी बोल-चाल में सरस रचना नहीं हो सकती। उन्होंने अपने हिन्दी भाषा नामक ग्रंथ में लिखा है कि खड़ी बोली में दीर्घान्त पद अधिक आते हैं, इसलिए उसमें कुछ-न-कुछ रूखापन पा ही जाता है। इस विचार के होने के कारण उन्होंने खड़ी बोल-चाल की कविता करने की चेष्टा नहीं की। किन्तु आगे चलकर समय ने कुछ और ही दृश्य दिखलाया, जिसका वर्णन आगे किया जावेगा। बाबू हरि- श्चन्द्र जो रत्न हिन्दी भाषा के भाण्डार को प्रदान कर गये हैं वे बहुमूल्य हैं, यह बात मुक्तकंठ से कही जा सकती है।