पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/६७

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हिन्दी भाषा का उद्गम ] ६८ [ 'हरिऔध' मया त्वम् सोलह बुद्धिः बुद्धि बुद्धि बुद्धी मये, मे मया, मये, मइ, मे, ममए - त्वं, तुमन त्वं, तुवम् तं, तुमं, तुवम् षोड़श सोलह सोलह विंशति वीसा वीसती, वीसम् वीसा दधि दहि, दहिम् दधि दहि दहिम् __ प्रसिद्ध हिन्दी उन्नायक बाबू श्यामसुन्दरदास ने नागरी प्रचारिणी पत्रिका के प्रथम भाग में जो लेख भारतवर्षीय आर्य-देशभाषाओं के प्रादेशिक विभाग पर लिखा है, उसके अन्त में उक्त महोदय ने एक नकशा लगाया है । उस नकशे में उन्होंने वैदिक संस्कृत से प्राचीन प्राकृत की और प्राचीन प्राकृत से मागधी और अर्ध मागधी की उत्पत्ति दिखलायी हैं । यह नकशा भी इसी विचार को पुष्ट करता है कि मागधी मूल भाषा नहीं है। 'प्राकृतलक्षण-कार' चण्ड ने आर्ष प्राकृत को, प्राकृतप्रकाश-कार वररुचि ने महाराष्ट्री को, प्रयोगसिद्धि-कार कात्यायन ने मागधी को, जैन विद्वानों ने अर्ध-मागधी को आदि प्राकृत अथवा मूल प्राकृत लिखा है। पालिप्रकाश-कार पालि को सब-प्राकृतों में प्राचीन बतलाते हैं-कुछ लोग दोनों को दो भाषा समझते हैं और अपने कथन के प्रमाण में दोना भाषाओं के कुछ शब्दों की प्रयोग-भिन्नता दिखलाते हैं । ऐसे कुछ शब्द नीचे लिखे जाते हैं- संस्कृत पालि मागधी शश ससा कुक्कुट कुक्कुटो अस्स श्वान सुनका व्यध्धो अश्व साँगा व्याघ्र