पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/७५

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हिन्दी भाषा का विकास ] ७६ [ 'हरिऔध निझर का मनोहर सलिल, ध्वनि-वीणा का मनोमुग्धकर झङ्कार और कल कुमुदिनी का कान्त कलाधर है। वह कटस्थ अचल हिमाचल समान समुन्नत पुनीत ज्ञान सुरसरि-प्रवाह का जनक, भाव-भक्ति भानुनान्दर्न का उत्पादक और अनुपम विचार-रत्न-राजि का अाकर है। उसी के समान उसमें से अनेक छोटे-बड़े धर्म के परम पवित्र सोते निकलते हैं, संसार को सरस करते हैं, मानसों में मन्द-मन्द बहते हैं, जिन कल-कल ध्वनि से निर्जीव को सजीव बनाते हैं, मूढ़ प्रकृति मरुभूमि की मरुभूमिता खोते हैं, पाहन हृदय को स्निग्ध रखते हैं, कलित-कामना- क्यारियों को सींचते हैं, प्रेम-पादप-पुज को पानी पिलाते हैं और कहीं तरंगिणी का स्वरूप धारण कर सद्भाव-प्रान्त को पय-सिक्त कर देते हैं । वेद एक देशवर्ती मानसरोवर है जिसमें विवेक का निर्मल नीर भरा है, जिसके वेदान्त, सांख्य, न्याय, मीमांसा-जैसे बड़े ही मनोरम घाट हैं, जिसमें उपनिषद्- उपदेश के अनूठे उत्पल सुविकसित हैं, और जिसके अनुकूल कूल पर संसार भर के नीर-क्षीर विवेकी मानस मराल सदैव क्रीड़ा करते रहते हैं । जिस समय महिमामयी मागधी के तुमुल कोलाहल से भारतीय गगन ध्वनित हो रहा था, उस समय कुछ दिनों तक संस्कृत देवी का महान् कंठ अवश्य कुण्ठित हो गया था; किन्तु जल्द समय ने पलटा खाया, फिर उनकी पूजा- अर्चा और पद-वन्दना होने लगी। उनकी महत्ता देखकर मागधी अवनत मस्तक हुई, बौद्ध धर्म के ग्रंथ संस्कृत में लिखे जाने लगे, ललित विस्तर-जैसे ललित ग्रन्थों की रचना हुई, बौद्ध धर्म के साथ वह देशान्तरों में भी पहुँची और वहाँ हाथोंहाथ ली गयी । समस्त प्राकृत भाषाएँ अपना काल बिताकर अव्यवहृत हुई; किन्तु संस्कृत की अबाध सत्ता अाज भी भारतवर्ष की समस्त प्रचलित भाषात्रों को अपने तत्सम शब्दों द्वारा सत्तामयी बना रही है। आज भी प्राचीन भाषाओं के सुसज्जित सभा मंडप में वह सिंहासनासीन है, और आज भी उसकी पुस्तकच्यापिनी भाषा रूपान्तर से देश-व्यापिनी होकर अपनी विजय-वैजयन्ती-उत्तोलन कर रही है।