पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/८६

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हिन्दी भाषा का विकास ] ८७ [ 'हरिऔध' भूखन सकल घनसार ही के घनश्याम कुसुम कलित केसर हो छवि छाई सी। मोतिन की लरी सिर कंठ कंठमाल हार । और रूप ज्योति जात हेरत हेराई सी। चन्दन चढ़ाये चारु सुन्दर सरीर सब । राखी जनु सुभ्र सोभा वसन बनाई सी। सारदा-सी देखियत देखो जाइ केसोराइ ठाढ़ी वह कुँवरि जोन्हाई में अन्हाई .सी ॥ हिन्दी संसार में दो बहुत बड़े सारग्राही हुए हैं। इनकी सारग्राहिता बड़ी ही हृदयग्राही है । ये हैं थोड़ी पूँजीवाले; किन्तु कई बड़े-बड़े पूँजीपति इनके सामने कुछ नहीं हैं । इनके पास हैं थोड़े; किन्तु जितने जवाहिर हैं, हैं बड़े ही अनूठे। जहाँ कितने तेल चुलानेवाले ठीक-ठीक तेल भी नहीं चुला सके, वहाँ इन्होंने इत्र निचोड़ा है। इनमें एक दरियाय लताफत के दुरे वेबहा अब्दुल रहीम खाँ खानखाना हैं और दूसरे साहित्य-गगन के पीयूषवर्षी पयोद बिहारीलाल । इन दोनों सहृदयों में सौ साल से अधिक का अन्तर है । इन लोगों की भी कुछ रचनाएँ पढ़िये-पहले रहीम की सेह्र बयानी देखिये- यों रहीम सुख होत है बढ्यो देखि निज गोत । ज्यों बड़री अँखियान लखि अँखियन को सुख होत ॥ छार मुंड मेलत रहत कहु रहीम केहि काज । जेहि रज रिखि पत्नी तरी सो ढूँढ़त गजराज ॥ कलित ललित माला वा जवाहिर जड़ा था। चपल चखन वाला चाँदनी में खड़ा था। कटि तट बिच मेला पीत सेला नवेला। अलि बन अलबेला यार मेरा अकेला ॥