रहिमन असमय के परे,हित अनहित है जाइ ।
बधिक-बानसों मृग बँध्यो, देतो रुधिर बताइ ॥
भाव दोनों का स्पष्ट है । रहीम के दोहों में कोई विशेषता नहीं है।
ऐसे ही कवीरदासजी के एक दोहे के भाव से रहीम ने दोहा नम्बर २११ बनाया है। कवीर ने जिस बात को स्पष्ट कर दिया है, उसी को रहीम ने गुप्त रखकर अपना अभिप्राय प्रकट किया है । फिर भी रहीम के दोहे में कवीरजी की शब्द-योजना से कोई अधिक रोचकता अथवा लालित्य नहीं आ सका।
रहीम ने कई दोहे संस्कृत छन्दों के भाव लेकर अथवा उनका अनुवाद करके ही बनाए हैं ।
पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नोदकं, तथा न खादन्ति फलानि वृक्षाः।
धाराधरो वर्षति नात्महे तवे, परोपकाराय सतां विभूतयः ॥
रहीम ने इसी को एक दोहे में किया है।
तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियहिं न पान ।
कहि रहीम पर-काज-हित, सम्पति सँचहिं सुजान ॥
यद्यपि धाराधर का उदाहरण दोहे में नहीं आसका फिर भी रहीम ने पर-काज-हित की बात काफ़ी सबूत से पेश की है। इसी प्रकार दोहा नं० ११९, १५६ और १५९ अन्य श्लोकों के भाव लेकर, जो फुटनोट में दे दिए गए हैं,