पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/७२

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- दोहे। . २१ रहिमन कबहूँ बड़ेन के, नहीं गर्व को लेस। भार धरे संसार को, तऊ कहावत सेंस ॥ १६५ ॥ रहिमन नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि । दूध कलारिन हाथ लखि, मद समुझे सब ताहि ॥ १६६ ॥ रहिमन अब वे बिटप कह, जिनकी छाँह गंभीर । बागन बिच-बिच देखियत, संडेड कंजे करीर ॥ १६७ ॥. रहिमन निज मनकी विथा, मन ही राखौ गोयं । सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय ॥ १६ ॥ रहिमन चुप द्वै वैठिए, देखि दिनन को फेर । जब नीके दिन श्राइहै, बनत न लगि है देर ॥ १६६ ॥ रहिमन वे नर मरि चुके, जे कहुँ माँगन जाहि। . उनते पहिले वे मरे, जिनमुख निकसत नाहिं ॥ १७० ॥ रहिमन मनहिं लगाय कै, देखि लेहु किन कोइ । ' नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होइ ॥ १७१ ॥ रहिमन लाख भली करो, अगुनी अगुन न जाइ । राग सुनत पय पियत हूँ, साँप सहज धरि खाइ ॥ १७२ ॥ रहिमन दानि दरिद्र तर, तऊ जाँचिबै जोग । ज्यों सरितन सूखा परे, कुवा खनावत लोग ॥ १७३ ॥ १६५-१-शेषनाग,अवशिष्ट । १६७ -१-सेहुँडा,एक कटीला पेड़ होता है । २-लता के आकार का एक कटीला वृक्ष । १६८-१-गोपन करके, छिपा करके । १७३-याचना, मॉगना ।