पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रहीम-कवितावली। रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि । जहाँ काम आवे सुई, कहा करै तरवारि ॥ १७४ ॥ रहिमन अती न कीजिए, गहि रहिए निज कांनि । सहिजन अति फूलै तऊ, डार-पात की हानि ॥ १७५ ॥ रहिमन याचकता गद्दे, बड़े छोट है जात । नारायन हूँ को भयो, बावन प्राँगुर गात ॥ १७६ ॥ रहिमन धोखे भाव ते, मुख ते निकसत राम । पावत पूरन परम गति, कामादिक को धाम ॥ १७७॥ रहिमन जो तुम कहत हो, संगत ही गुन होइ । बीच उखारी रामसेर, रस काहे ना होइ ॥ १७८ ॥ रहिमन पानी राखिए, बिन पानी . सब सून । पानी गए न ऊबरै, मोती मानुष चून ॥ १७६ ॥ रहिमन रहिबो वा भलो, जौ लगि सील समूच । सील ढील जब दोखए, तुरत कीजिए कूच ॥ १० ॥ रहिमन रहिला की भली, जो परसै मन लाइ । परसत मन मैला करै, सो मैदा जरि जाइ ॥१८१ ॥ १७५-१-मर्यादा। १७८-१-यह ऊख के समान ही, बड़े नरकुल के आकार का एक पेड़ होता है जो ऊख के खेत में पैदा होकर भी मीठा नहीं होता।

  • १८०--रहीम का ऐसाही एक और भी दोहा है:- .

रहिमन तब तक ठहरियो, दान मान सनमान । घटत मान जब देखिए, तुरतहि करिय पयान ॥ देखो दोहा नं० २१३। १८१-१-चना।