पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/७४

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दोहे। २३ रहिमन अँसुवा नयन ढरि, जिय दुख प्रगट करेइ। . जाहि निकारो गेहते, कस न भेद कहि देइ ॥ १८२ ॥ रहिमन साँचे सूर को, बैरी करत बखान । साधु सराहै साधुता, यती योषिता जान ॥ १८३ ॥ रहिमन श्रोछे संग ते, नितप्रति लाभ बिकार । नीर चुरावै सम्पुटी, मारु सहत घरियार ॥ १८४ ॥ रहिमन प्रीति सराहिए, मिले होत रँग दून । ज्यों हरदी जरदी तजै, तजै सपेदी चून ॥ १५ ॥ रहिमन खोटी आदि को, सो परिनाम लखाइ। ज्यों दीपक तमको भखै, कजल बमन कराइ ॥ १८६॥ रहिमन खोजै ऊख मैं, जहाँ रसन की खानि । जहाँ गाँठि तहँ रस नहीं, यही प्रीति की हानि ॥ १८७ ॥ रहिमन धागा प्रेम को, मति तोरो चटकाइ। टूटे से फिरि ना मिले, मिले गाँठि परि जाइ ॥ १८ ॥ रहिमन चाक कुम्हार को, माँगे · दिया न देह।, छेदहि डंडा डारिकै, चहै नाँद लै लेइ ॥ १८६ ॥ रहिमन इक दिन वे रहे, बीच न सोहत हार । बायु जो ऐसी बहि गई, बीचन. परे पहार ॥ १०॥ रहिमन बात अगम्य की, कहन-सुनन की नाहिं । जो जानत सो कहत नहिं, कहत सो जानत नाहिं ॥ १६१ ॥ १८३-१-स्त्री। १८४-१-हानि ।।