पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/७८

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दोहे। रहिमन असमय के परे, हित अनहित है जाइ । बधिक बान सों मृग बध्यो, देतो रुधिर बताइ ॥ २१६ ॥* रहिमन माँगत बड़ेन की, लघुता होति अनूप । बलि-मख माँगन हरि गए, धरि बामन को रूप ॥ २१७ ॥ रहिमन गठरी धूरि की, रही पवन ते पूरि। गाँठि युक्ति की खुलि गई, अन्त धूरि की धूरि ॥ २१८ ॥ रहिमन यह तनु सूप है, लीजै जगत पछोरि । हलुकन को उडि जान दे, गरुए राखु बटोरि ॥ २१६ ॥ रहिमन वहाँ न जाइए, जहाँ कपट को हेत। हम तन ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत ॥ २२० ॥ रहिमन मारग प्रेम को, बिन बुझे मति जाउ। जो डिगिहौ तौफिरि कहूँ, नहि धरिबे को पाँउ ॥ २२१ ॥ रहिमन तीर कि चोट ते, चोट परे बचि जाय । नैन-बान की चोट ते, धन्वन्तरि न बचाय ॥ २२२ ॥

  • २१६-इसका भाव महात्मा सूरदासजी के इस पद में अच्छी प्रकार

व्यक्त किया गया है:- असमय मौत काको कौन ! बधिक मारयो बान सों मृग कियो कानन गौन । तन को श्रोनित भयो बैरी खोजि दोहों तौन ॥