पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/९६

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बरवै नायिका-भेद। ४५ मध्या-बासकसज्जा- सेज बिछाइ पलँगिश्रा, अंग सिंगार। चितवत चौकि तरुनिश्रा, दै दिग-द्वार ॥६६॥* प्रौढ़ा-वासकसजा- । हसि-हँसि हेरि अरसिश्रा, सहज सिंगार। 'उतरत चढ़त नबेलिश्रा, पियकै बार ॥ ६७॥ परकीया-बासकसज्जा- सोवत सब गुरु लोगवा, जानेउ बाल । दीन्हेसि खोलि खिरकिया, उठिकै हाल ॥ ६८ !! गणिका-बासकसजा- कीन्हसि सबै सिंगरवा, चातुर बाल । ऐहै प्रान पियरवा, लै मनि-माल ॥ ६६ ॥ ७-स्वाधीनपतिका। मुग्धा-स्वाधीनपतिका- आपुहिं देत जवकवा, गहि-गहि पाँइ । आपु देत मोहि पिवा, पान खवाइ ॥ ७० ॥ मध्या-स्वाधीनपतिका- पीतम करत पिअरवा, कहल न जात । रहत गढ़ावत सोनवा, यह सिरात ॥ ७१॥

  • कविवर मतिराम के इस दोहे का भाव इस बरवै से बहुत कुछ मिलता

जुलता है:-- सुन्दरि सेज सँवारिकै, सब साजे सिंगार। दृग-कमलन के द्वार पर, बाँधे बन्दनवार । ७१-१-यार ।