पृष्ठ:राजविलास.djvu/१०१

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राजविलास । जङ्गजीतन जोध जग जस । रपटि रिपु रल- तलहि रिन रस ॥ गोर गात सु गोध गुरु गस, बसु- मती जिन कीन निज बस ॥ ८० ॥ बन्धि आनत सित्रु वामहि, गाहि धर गढ़ कोट गामहि । जानि ऋतु पति अट्ट जामहि, धूपटे धन राज धामहिं ॥१॥ .. सरस सुर सङ्गीत सच्चइ । नृतत पातुर नारि नच्चइ ॥ रोग रङ्ग सु तान रच्चइ । मधुर धुनि सुनि मोद मच्चइ ॥२॥ सुरहि सज्जन जन सहायक, लछिपति सम लील लायक ॥ प्रचुर हय गय सेन पायक, नर प्रधान नराधिनायक ॥३॥ ___भीम भय गढ़ कोटि तज्जइ, ध्रसकि भासुरि धरनि धुज्जइ ॥ राजराण सु पुत्त रज्जइ, तिक्ख अरि तनु नेह तज्जइ ॥८४ ॥ सकल रद्य धुरा समत्यह। पिशुन पटकहि ज्यों सु पछह । सबल दल जिन चढ़त सत्यह । हेम हय गय देत हत्थह ॥ ५ ॥ ___मत्त मीर मजेज मोरन । तुंग तर मेवास तोरन ॥ बीर बर गत धन · बहोरन, जगत जय जस बाद जोरन ॥ ८६ ॥ क्रूर जसु कर कठिन कंकह, झाक बज्जत धुनि