पृष्ठ:राजविलास.djvu/११४

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राजबिलास । - १०७ गिरि शृङ्ग उतंगनि ते यु गिरों, कुल कज्ज हलाहल पान करो । जरते झर पावक कुण्ड जरों, बरिही सुर आसुर हो न बरों ॥२७॥ जिन आनन रूप लंगूर जिसी, पल सर्व भर्षे सुर सो युग सौं । जिन नाम मलेछ पिशाच जना, सुर ही रिपु होन न स्याम मनों ॥२८॥ मन सोचति ही उपज्यो सु मते, छिति छत्रपती बर हिन्दु छतो। श्रीराजसि राण खुमान सदा, अब ओट गहो तिन की सु मुदा ॥ २८ ॥ पुहवी नन तासम छत्रपती, रविबन्स वि- भूषन भाल रती। धर आसुरि मारन हिन्दु धनी, सरनै मो रक्खन सोइ धनी ॥ ३० ॥ लहि प्रोसरि सुन्दर पत्र लिखें, चित्रकोट धनी अबरूय रखे । हरि ज्यों सु रुकुंमनि लाज रखी, अब ला यों रखहु पास मुखी ॥ ३१ ॥ ___ गजराज तजे खर कोन गहें।सुर वृक्ष छतें कुन प्राक चहें । पय पान तजे विष कोन पिये, लहि पाचरु काचहि कोन लिये ॥ ३२ ॥ बग हंसनि क्यों घर बास बसें, न रहे फुनि कोकिल कग्गर से । सस सिंहनि ज्यों नन देखि सके, बिन बुद्धिय आसुर बादि बके ॥ ३३ ॥ नर नायक तो सम ओर नही, सरणागय बत्सल