पृष्ठ:राजविलास.djvu/११५

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१०८ राजबिलास। तू जसही । प्रभु के सु लुली लुलि पाय परों, कर जोरि इती अरदास करों ॥ ३४ ॥ सजि सेन सु आक्हु नाह इतें, अबला सु छुड़ा- वहु भासुरते। सु लई ज्यों राघव सीत सती, हठ कार करावन राय हती ॥ ३५ ॥ करि भीर प्रभू निज कामिनि की, बलि जाउ सदा तुम जामिनि की। इन कज्जहि लाइक तूजइला कुल नीर चढ़ाउन देव कला ॥ ३६॥ लिखि लेख समै द्विज सद्दि लियौ, कहि भेद सु कग्गद हत्य दियो । मुष बैन दिढ़ाइरु शीष करी, धर पत्त बहू सुउमङ्ग घरी ॥ ३७॥ पहुंच्या सु उदय पुर माझ पही, महाराणहि भेटि असीस कही। जय हिन्द धनी जगतेश सुतं, श्री राजसि राण जगत्त जितं ॥ ३८ ॥ गुदराइय लेख कुमारि गिरं, अति हर्ष भयो नर नाह उरं । करुनाकरि विप्र समान कियो, दिल उत्सक उचित दान दयो।। ३४॥ महि मानिनि जानि दसारु मिलें, घर पावत लच्छिय कौन ठिले। इह चित्तहि ठानि के बीरु बली, रति पाइ महा रस रङ्ग रली ॥ ४० ॥ घन नोवति नद्द निसान घुरे, अवनीस अनेक उछाह करे । चढ़ि चंचल वाम मिलाप चहें, कवि नायक यों कवि मान कहें ॥४१॥