पृष्ठ:राजविलास.djvu/११८

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राजबिलासा रूप नैरं रली, गोरि घन छली । सैन सिंगारयं, सज्जि मैं सारयं ॥ ६१ ॥ बज्जनं बज्जई, गेन घन गज्जई। ' गावही गीतयं, वाम रस रीतयं ॥ ६२ ॥ कीन निवछाबरी, सू हवं सुन्दरी। स्वर्ण सालङ्करी, मुत्ति यारम्भरी ॥ ६३ ॥ उछ दामयं रूप अभिराभयं । इन्द्र ज्यों वर्षयं, बन्दि बहु हर्षयं ॥ ६४ ॥ मांन रठोर के, द्वार कुल मोर के। तोरनं बन्दियं, अधिक आनन्दियं ॥ ६५ ॥ राजसी रान जू, प्रबल षग प्रान जू। रठबरि ब्याहई, सद्धि पत्ति साहई ॥ ६६ ॥ ॥ कवित्त ॥ ब्याह बेर वपु प्रक्र रूप पुत्ती सिंगार रचि । नषसिष रूप निधान सोभ पाई सरूप सचि ॥ शिर सेहरो सतेज स्वर्ण मणि जरित कांति कल सखि चहु ओर समूह गीत गावन्त सु मङ्गल ॥ रढ लीन भली ते रठबरि परमेशर रखी सु पत्ति। श्रीराज राण जगतेशको पति पायो सब हिन्दु पति६७ राजसिंह महाराण सरस कर ग्रहन समय लहि। सजि अमोल शृङ्गार कान्ति सुरपति समान कहि । सोहत सिर सेहरोकनक नग लाल जरित शुभ ।