पृष्ठ:राजविलास.djvu/१२५

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११८ राजबिलासा सिंह रानो अजीत ॥ १०४ ॥ अति मिलिय प्रजा मनु दधि उलट्ट. पिखंत चित्र नर नारि थट्ट । गोरी अनेक चढ़ि गौष गौष, पेईं नरीद पावंत पोष ॥ १०५ ॥ यो हिंदुनाह निय महल आइ, घुरने अनेक बाजिब घाइ । कुल देवि मान पूजा सु कीन, निति नित्य सुख विलसैं नवीन ॥ १०६ ॥ निति निति सुख नवीन रांण विलसै राजेसर । ॥ कवित्त ॥ लच्छि लाह यौं लेत लेत ज्यों लाह लच्छि वर ॥ देत अश्व बहु दान सूर जगम सोवन सज । पाटंबर शिर पाब गिरुय गज्जत देत गज ॥ मोतीनि माल सोवन महुर मौज देत महाराण महि । इन होड करें को नृप अवर कथन एह कवि मान कहि ॥ १०७ ॥ इणि श्री मन्मान कवि विरचते श्री राजविलास शास्त्र महाराणा श्रीराजसिंहजी कस्यरूप नगरे पाणिग्रहण वर्णन नाम सप्तम विलासः ॥७॥ मेद पाट फुनि मुरुधरा, अंतर अचल अपारु । तहँ तीरथ सलिता सुतट, रूप चतुर्भुज चारु ॥१॥ देवासुर मानवरु मुनि, आवत जात अनेक । बंच्छित दायक लच्छि बर, बंदत तवत बिवेक ॥२॥