पृष्ठ:राजविलास.djvu/१३१

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१२४ राजविलास । मालव जन मुख मुरभि पान धर होत सु पण्डित । पूरब जनपद प्रचलि वढ़िय बङ्गाल उदङ्गल । काशमीर सु कलिंग कूह फुट्ठी कुरुजंगल । पंजाब पञ्च पथ विचलि प्रज गोर सिंधु धर गिरत गढ़ । राजेस राण सु पयान सुनि दिग्गजहू न रहन्त दृढ़ ॥ ३७ ॥ कहि पयान महारान को, को बरनै कवि इन्द । कुम्म पिछि तह कसमसत, फन संकुरति फुनिन्द ॥३८॥ गज्जतु घोष गजादि रव, तुरगति तरल तरंग । दिसि पूरित महाराण दल, सागर ज्यों महि संग॥३८॥ इहि परि घन आडम्बरहि, कूच मुकाम करन्त । पत्ते तीरथ पास पहु, हृदय सु हरष धरन्त ॥ ४०॥ कनक कुंम्भ धज दण्ड युत, सोभति सिषर उतंग । मण्डप बहु मत वारनँ, सहसक पन्त सुचंग ॥४१॥ देवालय देखन्त दूग, ठरे सुधा जन साज । मुक्ताफल प्रक्षत समुष, सु बधाए वृजराज ॥४२॥ ॥ कवित्त ॥ सु बधाए वृजराज दृग सु देवालय देखत । कनक रजत कर कुसुम अमल मुक्ताफल अक्षत ॥ करि अंजलि कर कमल विनमि किन्नौ सिर साबृत भगति भाव भर हृदय जयतु यदुपतिमुख जंपत ॥