पृष्ठ:राजविलास.djvu/१३७

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राजविलास । पूजक पावन द्विज करत, स्नान सु सारँग पानि ६६ छन्द परिय। करते सु स्नान श्रीकन्त काय । बहु गीत नत्य वादित्र वाइ । ढमके सु ताम गुरु जङ्गि ढोल, निहले निसान करिके निमोल ॥ ७ ॥ मधु मेघनाद बज्जे मृदंग, वीणा सु बंस डफ चङ्ग सङ्ग । भरहरिय भेरि भरि भूरि नाद, सुनियै न श्रवन तिन सुनत साद ॥ ६८ ॥ सुनि फेरि संष ऊकार सार, सहनाइ रूरल सुर सौख्य कार । घंटाल ताल कन्सार तूर, झल्लारि झनकि सुर सोभ मर ॥ ६॥ सारंगि पुन्नि सुनिये रसाल, द्रम द्रमकि द्रह कि दुर बरि दुमाल । रुणझुणकि जन्त्र तिन मधुर तन्ति बज्जत पिनाक रीझत सुमन्ति ॥ ७० ॥ ___घन भंति भन्ति बादित्र घोष, प्रति सादगेन गज्जत सरोख । खग मृगरु धेनु मुनि नाद सोइ, हत सुद्धि रेह जनु चित्र सोइ ॥ ७१॥ बनिता विचित्र बहु बाल बृद्धि, तजि लाजकाज पिखन बिलुधि । रस सरस रीति रचि रंग रौलि, यदुनाथ सीस जल कलम ढोलि ॥ ७२ ॥ ____ सुकुमार सुरभि तनु शित सुचंग, सुचि बास संग अंगोछि अंग । कलधौत धौत पट बिमल कंति,