पृष्ठ:राजविलास.djvu/१३८

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राजविलास । सिर पाग स्वर्ण मनि गन सुभन्ति ॥ ३ ॥ जामा जरीनि कटि पट सजाति, किरनाल कि- रनि तिन इक्क होति । अदभुत उतरा संग पीतवान, पंचांग वास पहिरे प्रधान ॥ ७४ ॥ नग लाल स्वर्ण अवतंस सीस, कुण्डल जराउ युग अव जगीस । कमनीय कनक नग कण्ठ माल, बर मुत्ति माल मौक्तिक विसाल ॥ ७५ ॥ उर बसी हेम मानिक अनूप, पन्ना प्रवाल पुष- राज जूप । बहिरषाबाहु युग बाजु बन्ध, सुश्री करत्त सोवन सबन्ध ॥ ७६ ॥ बरबीर बलय बेढिम सुवर्णं, जिगमिगति ज्योति नग अधिक अर्ण । मुद्रिका पानि पल्लव प्रधान, नव रंग रत्न नव ग्रह समान ॥ ७७ ॥ मुरली प्रवाल कर अधर मध्य, सु प्रत्यक्ष जानि हरि राग सध्य । मेखला स्वर्ण कटि रत्नसार, पंदकरी पाइ बहु धन प्रकार ॥ ७ ॥ इहि भंति अलंकरि सकल अंग, सजि परू छत्र शिर वर सुचंग । कस्तूरि मलय केसरि कपूर, कुदन कचाल भरि भरि सँपूर ॥७॥ भल चरन जानु कर अन्स भाल, उर उदर कंठ भुज श्रवन साल । हरि अरचि अतर चौवा जवादि, अरगजा गन्धि सु अबीर आदि ॥ ८० ॥