पृष्ठ:राजविलास.djvu/१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राजबिलास । अज अजर अमर अपार अवगत अग अपंड अनंतयं । ईश्वरी आदि अनादि अव्यय अति अनोप अचिंतयं ॥ कर जोरि कहि कवि मान किंकर अरजतं अवधारनी । अद्धत अनूप मराल प्रासनि जयति जय जगतारनी ॥ ३१ ॥ कवित्त। जय जय ती सारदा सुमति समप्पन । कुमति कु कवित कुभास कठिन कलिमल कुखकप्पन ॥ सकल अनोपम अंग मात पूरन चितित मन । सदा तास सुमिरंत धवल मंगल लहियै धन ॥ श्रीराजसिंह राना सबल महिपलियां शिरमुकटमनि । गावत तास गुण बंद गुरु धलियांसी दिज्जै सुधुनि ॥ ३२ ॥ दोहा। । धणियांणी दीजै सु धुनि, सरसी वांणि सुशाल । चित्रकोट पति जस चऊँ, रचि रचि छंद रसाल ॥३३॥ इन परि सुनि कवि कृत अरज, मात होइ सनमुक्त । बोली यों अमृत बचन, सकल समर्पन सुश्ख ॥ ३४ ॥ गावहु गावहु सुकवि गुन, ठिक करि मन इक ठाउँ । राज राण जस बंद रचि, हों तुम्ह पूरी हाँ उँ ॥३५॥ मुबर दयौ श्री सरस्वती, आई अभिमुख आइ । शीश चढ़ाय लयौ सुकवि, प्रत मिसु विनाशा उद्यम अन्यह काज अब, दिवस महाभल देखि । कीनौ भालसिं दूरि करि, लाभ अनंत सुलेखि ॥ ३७ ॥