पृष्ठ:राजविलास.djvu/१४५

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१३८ राजबिलासा भिननन्त मक्खी भूरि । चित चलित चिन्ता पूरि ॥ जहँ जुरत कछु तहँ खात । तजि वर्ग मात रु तात ॥ १७ ॥ फल फूल मूल रु पात । तरु छालि हू न रहात, ररबरत लोक बराक । खाजन्त भाजी साक ॥१२॥ मन निठुर करि पिय मात । लहु बाल तजि तजि जात ॥ केईस विक्रय करन्त । निज बाल तजत रुदन्त ॥ १२ ॥ परि पुहवि रङ्क करङ्क । को गिनति कहि करि अङ्क । दिशि विदिशि बढ़ि दुर्बास । पलचरनि पूरिय पास ॥ १३० ॥ पशु पंखि प्रलय प्रजन्त, चुग चार हून लहंत । मानसहि मानस लग्गि । जहँ तहँ सुरोरति जग्गि॥१३१ इल नगर पुर उज्झस । नर जात बहु निर्वन्स। मुरझन्त जल बिनु मीन । त्यों विश्व अन्न विहीन१३२ ॥ कवित्त ॥ बसुमति अन्न बिहीन दीन दुखित तनु दुब्बल । संसत निसत सरफरत, कितकु तरफरत ग्रहित गल। कितकु करुन कुननंत मक्खि भिननन्त दसन मुख। कितकु धीर न धरन्त हीय हहरन्त दुसह दुख ॥ टलटलिय बिटल घन टलबलत गिरत परत अन्तक हरत । हट णिः चोक त्रिक उमग मग रङ्क करङ्कति रर बरत ॥ १३३ ॥