पृष्ठ:राजविलास.djvu/१४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राजबिलासा ॥दोहा॥ अनाधार असरन असत, आसा भङ्ग अतीत । प्रलय होत प्रज पनि पशु, जलचर थलचर जीव१३४ जानि भहा दुर्भक्ष जब, दयावन्त दीवान । प्रतिपालन जग की प्रजा, मन्त मतै मति मान१३५ सिखरी बिचि गोमति सलित बंधि महा बंधान । करै कोटि धन खरच करि सरबर उदधि समान१३६ प्रजा सकल उहिबिधि पले, भगे भूष दुर्भक्ष । अचल सु जस प्रगटै अवनि, सुक्रत मेर सदूक्ष १३७ ठीक एह ठहराइ कै सज्जि सेन चतुरंग । आए गोमति सलित तह अद्रि अनेक उतंग ॥१३८॥ लेइ सु महुरत सुभ लगन, परठि नीम पायाल । लगे नारि नर केइ लष, दूर भगो सु दुकाल. १३८॥ ॥ कवित्त ॥ संवत्सर दह सत्त सत्त दह संवत सोहग । मण्डि महा कमठान जानि दुरभष्ष सकल जग ॥ पोस अष्टमिय प्रथम बार मंगल वर दाइय । नायक हस्त नक्षत्र सिद्धि वर योग सुहाइय ॥ तिहि दिवस सकल मङ्गल सहित परठि नीम पा- गाल मधि । राजेस राण रचि राज सर नितु नितु बहु बिलसन्त निधि ॥ १४० ॥ सहस एक गजधर.सुमन्त कर कनक रूव गज।