पृष्ठ:राजविलास.djvu/१४९

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राजविलास। करहु सुधारि सु काम नवल कमठान निहारत । चहुँ ओर दरोगा चौकसिय केइ सावधानी करत । आलंबि पौनिछत्रीश प्रजहार झोर जग मन हरत१४७ सेढी बुरज सवार चुनत केई चेजागर । सिङ्गी काम सपल्ल पल्ल ढोवन्त केइ नर ॥ किते महिष भरि गारि पालि पूरत पर्वत सम । ग्राहत केइ गजराज काज दृढ़ बन्ध क्रमं क्रम ॥ केई सु खार चूना बहत खनत केइ सर मध्य षिति । राजेश राण रचि राजसर इहि परि किय प्रारम्भ अति ॥ १४८॥ बरस सत्त बरसन्त प्रबल जलधर रितु पावस । मिलि बहु सलित मिलाप जलधि ज्यों जानि महा जस ॥ सलित भरचौ सु बिसाल पंच दस कास प्रमा- नह । गंगाजल गोषीर सुधा सेलरी समानह ॥ जंगम जिहाज सु गढ़ाइ जब जल क्रीड़ा क्रीडन्त नृप । शीतल तरङ्ग मारुत सहित हरत ग्रीष्म ऋतु दाघ तप ॥ १४ ॥ छन्द हन्सचार । पढ़ मन्तह नीम पयाल पइट्ठिय सु विसालह गज सढ सयं । गजधर द्रग सहस सल्प विधि ग्यायक बेलदार नर लख बियं ॥ उडह सु अलेख लगे प्रार- म्भहि हरषित चित्तरु मुख हसे। राजेस राण महोदधि