पृष्ठ:राजविलास.djvu/१५१

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१४४ राजबिलास। जुरे नव नाथ जती ॥ बनि ब्योम विभान विष्णु शिव ब्रह्मह विविध कुसुम सुरभित बरसें । राजेश राण म- होदधि रूपहि राज समुद्द रच्यो सुरसें ॥ १५५ ॥ __गन्धर्व नचन्त सु गायन गावत गज्जत नभ घन राग गहे । वादिन बहूबिध घोष सु बज्जत रवि शशि रथ थिर होइ रहे॥ वेदंतीय विप्र सु वेद बदन्तह हवन करंत सु सन्त रसें । राजेश राण महो- दधि रूपहि राज समुद्द रच्यो सुरसें ॥ १५६ ॥ ___ दसमी रु विचार बिचारि विजय दिन सुर प्रतिष्ठी हुन सुखं । रचि कनक तुला राजन मन रंगहि दूरि करन दारिद्र दुखं ॥ जाचक जन केइ सु कीन प्रजाचक दान कि पावस धन बरसें । राजेश राण महोदधि रूपहि राज समुद्र रच्यो सुरसें ॥ १५७ ॥ __ हय दीने दत्त सु केइ हजार करि केई बगसीस किये । दीने बहु ग्राम अनग्गल दालति युग युग याँ जाचक जिये ॥ करिहे कां यज्ञ सु इन कलिकालहि यज्ञ सु इन सम जगत जसे। राजेश राण महोदधि रूपहि राज समुद्द रच्यो सुरसें ॥ १५८ ॥ धनि धनि तुम बंश पिता तुम धनि धनि धनि जननी जिन उयर धरे। धनि धनि तुम चित्त उदार धराधिप काम सु चिन्तित सफल करे ॥ पुहवीं तुम धन्य सकल हिन्दू पति धनि धनि तुम जीवत