पृष्ठ:राजविलास.djvu/१६५

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रोजविलास । बरस इक्क पत्ते सु वय, सहसकिरन हस मान ॥६६॥ ते नर्प सुत लहु जानि तव, अरि ओरँग सुलतान । पिता बैर घन पुत्त सों, पोषन लगा सु मान ॥६॥ ॥कवित्त ॥ बैरी न तजै बैर जानि निज समय जोर वर। मूसहि ज्यों मंजार मच्छ ज्यों बगल मज्झ सर ॥ राजा जसंपति रह्यो अहोनिशि हम सो अज्झौ । अंगज तिनके एह जोर इनको कुल जज्झौ ॥ पारोध पिशुन ए पत्तले संपति हय गय लेहु सब। चित्त सु साहि ओरंग चित इह प्रोसर आयो अजब ॥ ६ ॥ ॥दोहा॥ इह ओसर पायो अजब महाराज गय मोष । भू असपति हू अब भयौ दूरि गयो सब दोष ॥८॥ बैरी थान बिडारिये कहें लोक यों कत्थ । यवन सु थप्पो जोधपुर. ए बालक असमत्थ ॥७॥ राजा बिन का रहबर जुरिहें हम सों जंग । धरो तुरक नृप मुरधरा इह चिन्तय ओरंग ॥१॥ पठयो दूत सु जोधपुर, करि पतिमाहि किताब। सकल रहबर सत्य सों, सो कहि जाइ सिताब॥ ७॥ सकल रहबर सत्य सुनहु सामन्त सूर घर । जे राजा.जसवन्त अधिक संचे धन ागर ॥ सो मंगे