पृष्ठ:राजविलास.djvu/१७

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स। २० . राजबिलास । झरत झरहरनि घात । गहराय पत्त गहबर गह, मधुकर सुगुज तरुवर महक्क ॥ ५० ॥ टपकट बुन्द तरु पव्व डाल, मंडव सुकीन द्रुम वल्लि माल । बग टग लगाय पावस बइठ्ठ, दारा सुबकी पतिव्रता दिव ॥ ५२ ॥ __ झुकि विटपि सजल मारुत झकार, घन उमड़ि "धुमड़ि बरसंत घोर। चतुरंग चंग रचि इंद्र चाप, बिरहनि करंत विहल विलाप ॥ ५२ ॥ __ यामिनी तमस अति च्यारि याम, करि कोप काय बाधंत काम । धनवंत लोक निज धवल धाम, बरसंत मेघ विलसंत वाम ॥ ५३ ॥ ___ जगमगति निशा षद्योत जाति । हच्छे सुळच्छ्र- नन मुद्धि होति। पर मुग्ध लब्ध पंथक प्रमोद, वेताल करत बन धन विनोद ॥५४॥ ____ झर.मंडि इंद तम रह्यो झुक्कि, धाराधर पर बद्दल सु धुक्कि । हुंकार नाद बन सिंह हुकि, ढूढंत भक्ष निशिचार दुक्ति ॥ ५५ ॥ 'बोलंत झिल्लि इक सांस बैन, मानिनि दियोग मन मथत मैन । दीसंत मग्ग दानिनि दमक, चितचोर मष्त उपजे चमक्क ॥ ५६ ॥ सारंग करत गायन सुजान, रीझत जेह सुनि राय राण । मल्हार घटत मांचंत मेह, नर नारि चित्त वाधंत. नेह ॥ ५७ ॥