पृष्ठ:राजविलास.djvu/१७६

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राजविलास । १६. ॥ दोहा॥ कहि आलम कमधज सुनहु योगिनि पुर हम जाइ। नृप गुरु सुत करिहे नृपति, बहु सनमान बढ़ाइ १२८॥ तिहि कारन हम सत्थ तुम चला सकल चित चंग। प्रभु सब करिहैं पद्धरी भूलि न जानहु भंग ॥ १३० ॥ बहु बिधि बचन बिसास ते चूक न चिंतय चित्त । ढिल्लि नेर दिल्लीस सों सब कमधज संपत्त ॥ १३१ ॥ सेव करत मप सुतन सों बासर बहुतक बित्त । परि न देत महराय पद असपति चित अपबित्त १३२॥ ॥वित्त ॥ दिल्ली पति लखि ढिल्ल कथन कमधज्ज़ कहा- वहि । पातिशाह परवरदिगार कद गहर लगावहि ॥ हम आए प्रभु हुकुम देश हम हमकू दिज्जे । थप्पि जोधपुर थान नृपति गुरु सुत नृप किज्जे ॥ सत पुरुष बैन डुल्ल न सहि ध्र व सुराह उर धारि यहि । रस किये रसहि रस राखिये । अरज इती अवधारियहि ॥ १३३ ॥ सुनि सुबोल सुलतान उलटि उलटी इह साखिय। रह हम तुम कहा रहयो सो व तुमही चित साखिय ॥ आगे हू तुम ईश वह्यो हमसो गुमान बहु । जुरिग उजेनी जंग सेन हय गय 'मिडिय सहु ॥ फुनि लुट्टि हुरम धवलोमुरहि सल्लरीति सल्ले सदुष ।