पृष्ठ:राजविलास.djvu/१७७

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राजबिलास। सो राज रौति तुम संगही सोचि कहो रहि क्यों न सुष १३४ ॥ . . . रयण कनक अरु रूप धनी तुम जे संचिय धन। सो हम अप्पहु सच्च गिनिब. हय गय खच्चर गन ॥ तो सुमेल हम तुमहिं पुहबि तबही तुम पावहु । अब हम से अरदास कहा इइ बृथा कहावहु ॥ मन्न सु कान महाराय के पुत्त न जाने का प्रगटि । मय मत्त भयो जनु पंचमुष पातिशाह बचनहि पलटि ॥ १३५ ॥ . ॥दोहा॥ रिपु जन मन राखें न रस, गुन परि को न महंत । पन्नग को पय प्यावतें, समझि करे चित संत ॥१३६॥ ॥ कवित्त ॥ रिपु जन के रस कहा कहा तिन बचन बिसासह । कहा पिशुन सु प्रतीत कहा भरि काइ कलासह ॥ महुरे को कहा मीठ कहा हिमशैल शीत जग । कहा स्व प्रगटित अगनि कहा पर पोषित पन्नग ॥ पतिशाह मुबोल पलटि के रढ़ लग्गो सुख जान रुष। शुभ सीष तास को सीखवै लायक नर जो मिलय लष ॥ १३७ ॥ ॥ दोहा ॥ अनि एसी राठोर सब, भये रोस भर भार । सब पतिसाही सेन पर, तु? जयों षहतार ॥ १३ ॥