पृष्ठ:राजविलास.djvu/१७९

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१७२ राजविलास । ररब्बरि षब्बरि रुम्मिय हड। झझारिय झूरिय तप्तर अँड । रनं घन रोलिय मत्त रुहिल्ल । जितं तित मञ्चिय रत्त चिहल्ल ॥ १४६ ॥ पुरेसिय षग्ग किये षय काल । हबस्सिय होइ रहे यु बिहाल ॥ सुसे धर मुच्छिय केसरि बानि । जितं तित जाइ परे पय पानि ॥ १४७ ॥ .. इही विधि आलम के मुंह अग्ग । जितं तित झंग महा भर जग्ग । भरयो दरबार भग्यो भहराय। भगो यवनेश सु अन्दर जाय ॥ १४८ ॥ परब्भरि प्रासुर षान जिहान । जितं तित रुक्किय पावन जान ॥ जरे दरबाननि दुर्ग कपाट । घनं परि घेर रुके जल घाट ॥ १४ ॥ ___ रलं तलि लोग परी पुर रोरि । दुरे नर भग्गि दई द्रढ़ पौरि ॥ गृहं गृह कंचन रूब गडंत । भगे बहु भामिनि बाल रडत ॥ १५० ॥ गहै कुन कप्पर सार किरान । घरप्पर ठिप्पर ठिल्लहि धान ॥ मची घन लम्बी कूह कराल । चही दिग होइ रहो ढकचाल ॥ १५१ ॥ मुषं मुष जकिय मारहि मार । हये नर मेछिय केउ हजार ॥ ढंढोरिय ढिल्लिय किन्न सुढिल्ल । किये गढ़ काट उथल्ल पुथल्ल ॥ १५२ ॥ बिहंडिय खंडिय श्रेणि मुहह । जितं तित