पृष्ठ:राजविलास.djvu/१८

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राजबिलास । संवत सु सत्त दहं सतक सार, बच्छर चौतीशम धरि विचार। सब लोक उंक निज २ सचेन, आसाढ़ सेत सत्तमी अंन ॥ ५८ ॥ देवी सुभाइ बरदान दीन, कवि मान ग्रंथ प्रारंभ कीन । चीतौर धनी कहियै चरित्र, पढि छंद बिबिधि रचि जस पवित्र ॥ ५ ॥ सब हिंदवान कुल रवि समान, राजंत राज' श्री राजराण । इक लिग रूप मेवार ईश, याचक जन मन पूरन जगीश ॥ ६ ॥ लहिये जु नाम तस लच्छि लील । संपजै संग सज्जन सुशील ॥ दारिद्र दुख नासंत दूरि । है रिद्धि सिद्धि संपति हरि ॥ ६१ ॥ देश देश फिरि देखते, अति उत्तम षिति आज । धर्म देश मेवार धर, सब देसां सिरताज ॥ ६२ ॥ जिण घर हरि घर देश जिंहि, ग्राम ग्राम प्रति ग्राम । अतुरायन धरनी अवर, रटैं नहीं जहं राम ॥ ६३॥. दरसन षट जे देषिय, पंडित पढ़त पुरान । बेद च्यारि जह बांचिये, तेज नहीं तुरकान ॥४॥ सकल जहां पूजै मुरित, नव देवल नियजंद। नह अन्याय इक निमिष को, भाषा भल भाषत ६५॥ गाम नगर पुर काट गढ़, बसें बहुत सुघवारा । सुन्दर नर नारी सकल, वित्तवंत वर वास ॥६६॥